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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा


मनुष्य बन्धु-बान्धवों, इष्ट-मित्रों तथा परिवारमें अनेक व्यक्तियोंसे घिरा हुआ है। वह प्रेरणा, उत्साह एवं सहायताके लिये इधर-उधर उत्सुक नेत्रोंसे देखा करता है। यदि कोई सहायता कर देता है, उत्साहसूचक दो वचन कह देता है, तो वह प्रसन्न हो जाता है, किंतु जहाँ बेरुखी, शुष्कता, नीरसता दीखती है, वहीं अपने मनमें आन्तरिक दुःख और गुप्त मनमें एक वेदनामयी निराशाका अनुभव करता है। तनिक-सी प्रशंसासे फूलकर कुप्पा हो जाना अथवा अपनी आलोचना सुनकर आन्तरिक दुःखका अनुभव करना निर्बल मनके विकार हैं।

जो व्यक्ति तनिक-तनिक-सी बातोंमें दूसरोंके उत्साहकी प्रतीक्षा किया करता है, अपनी मौलिक प्रतिभाका विकास नहीं करता। वह उस शिशुकी भांति है, जो माताकी गोदसे उतरकर कर्मोंसे परिपूर्ण इस संघर्षमय संसारमें अपने पाँवोंपर खड़ा नहीं होना चाहता।

जीवनमें एक अवस्था ऐसी आती है, जब मनुष्यको दूसरोंका सहारा प्राप्त नहीं होता। माता-पिताका शीतल संरक्षण विधिके विधानद्वारा खींच लिया जाता है; परिवारका समस्त उत्तरदायित्व ऊपर आ जाता है; अपनेसे छोटोंका भार भी वहन करना पड़ता है और जीवनक्रमका नियोजन भी स्वयं करना पड़ता है। इस स्वतन्त्र स्थितिमें ही मनुष्यके आत्मबलकी परीक्षा होती है।

जीवनमें यथासम्भव हमें बात-बातमें दूसरोंका सहारा लेनेकी आवश्यकता नहीं है। घरमें, व्यापारमें, योजनाओंके निर्माणमें स्वयं अपनी सूझ-बूझ, मौलिकता, दूरदृष्टिसे कार्य लेनेकी प्रवृत्ति विकसित करनी चाहिये। अपने बलपर, अपनी बुद्धिपर कार्योंको करनेसे मनुष्यकी अनेक गुप्त शक्तियोंका विकास होता है।

कोई तुम्हारा काम नहीं करेगा, जबतक कि तुम स्वयं अपने पूरे उत्साह, जोश और सामर्थ्यसे उसमें न जुट जाओ। तुम्हारा आत्मबल ही तुम्हारा स्थायी सहायक हो सकता है। जिसका आत्मबल विकसित होता है, वह शक्ति और जीवनसे परिपूर्ण होता है; दूसरोंकी सहायता ताकनेके स्थानपर स्वयं अपने बलपर काम करता है। जो मनुष्य जितना ही अपने आत्मासे, अपनी शक्तियों एवं पौरुषसे परिचित होता है, वह उतना ही आत्मबल-विज्ञ होता है। आत्मबलके अनुपातमें ही उसमें जीवन होता है।

लोगोंमें यह मिथ्या कल्पना बैठ गयी है कि भारी डील-डौलके मोटे-ताजे शरीरमें ही शक्ति होती है। वास्तवमें शक्ति तो आत्माकी है। इसीको हिम्मत कहते हैं। मामूली शरीर भी आत्मबलसे शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। क्या शिवाजी भारी भरकम शरीरवाले थे? गुरु गोविन्दसिंह, प्रताप इत्यादि साधारण शरीरवाले होकर भी इस आत्मबलकी शक्तिसे बलवान् बने। आत्मबल मनुष्यको जनताका नेतृत्व प्रदान करनेवाला सूक्ष्म तत्त्व है।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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